Friday, February 5, 2010

और भी दूँ /Aur bhi dun

मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

मॉं तुम्‍हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी,
कर दया स्‍वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्‍त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्‍वप्‍न अर्पित, प्रश्‍न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो।

सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे /Sabse adhik tumhi

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !

मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आंगन;
हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?
मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे !

मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है,
पूछ रहे शायद कैसा हूं
कुछ कुछ बादल के जैसा हूं;
मेरा गीत सुन सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई,
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे !

तुमने मुझे अदेखा कर के
संबंधों की बात खोल दी;
सुख के सूरज की आंखों में
काली काली रात घोल दी;
कल को गर मेरे आंसू की मंदिर में पड़ गई ज़रूरत
लगता है आंचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे !

परिचय से पहले ही, बोलो,
उलझे किस ताने बाने में ?
तुम शायद पथ देख रहे थे,
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!

जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी /Jab milegi roshni mujhse milegi

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूं;
मत बुझाओ !
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी !!

पांव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूं
आंसूओं से जन्म दे-देकर हंसी को
एक मंदिर के दिये-सा जल रहा हूं;
मैं जहां धर दूं कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ
पांव मेरे देखकर दुनिया चलेगी !!

बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूं मैं
इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गांव दफनाता फिरूं मैं
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूं ।
मत बुझाओ ।
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी !!

जी रहो हो किस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूं,
मत सुखाऒ !
मैं खिलूंगा, तब नई बगिया खिलेगी !!

शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी
मैं जला हूं, तो सुबह लाकर बुझूंगा
ज़िंदगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूंगा देवता बनकर पूजूंगा;
आंसूओं को देखकर मेरी हंसी तुम
मत उड़ाओ !
मैं न रोऊं, तो शिला कैसे गलेगी !!