Sunday, December 27, 2009

मेरे नगपति! मेरे विशाल! /Mere Nagpati ! Mere Vishal

== हिमालय ==

मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
'पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल

Monday, November 30, 2009

एक भी आँसू न कर बेकार
एक भी आँसू न कर बेकार
-जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ -
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार -
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा -
स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
-जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
- रामावतार त्यागी

Pushp Ki Abhilasha

पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक
- माखनलाल चतुर्वेदी

Thursday, November 26, 2009

प्रतिशोध /Pratishodh

किसी जन ने किसी से क्लेश पाया
नबी के पास वह अभियोग लाया।
मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।
नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।
उन्होंने शांत कर उसको कहा यों
स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।
चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने
स्वयं भी घात पाकर घात देने
क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा
तुम्हारे शील का साक्षी रहूंगा
दिखावो बंधु क्रम-विक्रम नया तुम
यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।

मातृभूमि /Matrabhumi

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥

फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥

जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥

हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

मनुष्यता /Manushyata

विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

Wednesday, November 25, 2009

नर हो, न निराश करो मन को /Nar ho na niraash

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो

Saturday, November 21, 2009

इनसे मिलिए /Inse Miliye

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून
कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पांव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़
गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन चुन कर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते करते जीवन का सूद
बाँहें ढीली ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल
छोटी सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक़्त पसीने का बदबू का संग
पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान
माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल
बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत


कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।

Wednesday, November 11, 2009

मैं ज़िन्दगी का साथ/Main Zindagi ka saath

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया

बरबादियों का सोग मनाना फ़ुजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया

जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मुक़ाम पर लाता चला गया

तुम्हें उदास सा पाता हूँ/Tumhe udas sa paata hun

तुम्हें उदास-सा पाता हूँ मैं कई दिन से
न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम
वो शोख़ियाँ, वो तबस्सुम, वो क़हक़हे न रहे
हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम
छुपा-छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी
ख़ुद अपने राज़ की तशहीर बन गयी हो तुम

मेरी उम्मीद अगर मिट गयी तो मिटने दो
उम्मीद क्या है बस एक पेशो-ओ-पश है कुछ भी नहीं
मेरी हयात की ग़मग़ीनियों का ग़म न करो
ग़म हयात-ए-ग़म यक नक़्स है कुछ भी नहीं
तुम अपने हुस्न की रानाईयों पर रहम करो
वफ़ा फ़रेब तुल हवस है कुछ भी नहीं

मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूँ शिकायत हो
मेरी फ़ना मेरे एहसास का तक़ाज़ा है
मैं न जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुमको
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है
शिकस्त साज़ की आवाज़ में रू नग़्मा है

मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
ये तुमने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूँ
मगर मुझे बता दो कि क्यूँ उदास हो तुम
खफ़ा न हो मेरी जुर्रत-ए-तख़्तब पर
तुम्हें ख़बर है मेरी ज़िंदगी की आस हो तुम

मेरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा
मगर ख़ुदा के लिये तुम असीर-ए-ग़म न रहो
हुआ ही क्या जो ज़माने ने तुम को छीन लिया
यहाँ पर कौन हुआ है किसी का सोचो तो
मुझे क़सम है मेरी दुख भरी जवानी की
मैं ख़ुश हूँ मेरी मोहब्बत के फूल ठुकरा दो

मैं अपनी रूह की हर एक ख़ुशी मिटा लूँगा
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता
मैं ख़ूद को मौत के हाथों में सौँप सकता हूँ
मगर ये बर-ए-मुसाइब उठा नहीं सकता
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
निजात जिनसे मैं एक लहज़ पा नहीं सकता

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के तले
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा

ये शरहों पे रंगीन साड़िओं की झलक
ये झोँपड़ियों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशें
ये माल रोड पे कारों की रैल पैल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छायी हुई

ये जंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानून और ज़ब्ते की गिरफ़्त
ये ज़ीस्क़ ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म हैं बहोत मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो

ख़ूबसूरत मोड़ /Khoobsurat Mod

This ones for the gal i love !!! Always had wished why i couldnt write such a thing !!!

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायेँ हम दोनों

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिल नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों में
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से

त'अर्रुफ़ रोग हो जाये तो उस को भूलना बेहतर
त'अल्लुक़ बोझ बन जाये तो उस को तोड़ना अच्छा
वो अफ़्साना जिसे तकमील तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायेँ हम दोनों

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयाँ हैं मेरे माज़ी की
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साये हैं

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायेँ हम दोनों

कभी कभी /kabhi Kabhi

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है


कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी


अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता


पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
तेरे लबों से हलावट के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता


मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं


ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह्गुज़ारों से
महीब साये मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से


न कोई जादह-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर फिर भी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें/Itni haseen itni jawaan

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात, क्या करें
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात, क्या करें ?

पेड़ों के बाजुओं में महकती है चांदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़्यालात, क्या करें ?

साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक
दामन को छू रहा है कोई हाथ, क्या करें ?

शायद तुम्हारे आने से यह भेद खुल सके
हैराँ हैं कि आज नई बात क्या करें ?

पर्वतारोही /Parvatarohi

मैं पर्वतारोही हूँ।
शिखर अभी दूर है।
और मेरी साँस फूलनें लगी है।


मुड़ कर देखता हूँ
कि मैनें जो निशान बनाये थे,
वे हैं या नहीं।
मैंने जो बीज गिराये थे,
उनका क्या हुआ?


किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर
घर जा कर सुख से सोता है,


इस आशा में
कि वे उगेंगे
और पौधे लहरायेंगे ।
उनमें जब दानें भरेंगे,
पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे।


लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।

हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।

करघा /Kargha

हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।


ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।


हर ज़िन्दगी एक सूत है
और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।
इस उलझन का सुलझाना
हमारे लिये मुहाल है ।


मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,
वह हर सूत की किस्मत को
पहचानता है।
सूत के टेढ़े या सीधे चलने का
क्या रहस्य है,
बुनकर इसे खूब जानता है।

’हारे को हरिनाम’ से

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं /Humko mita sake ye

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं

बेफ़ायदा अलम नहीं, बेकार ग़म नहीं
तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये ने'आमत भी कम नहीं

मेरी ज़ुबाँ पे शिकवा-ए-अह्ल-ए-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं

या रब! हुजूम-ए-दर्द को दे और वुस'अतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं

ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयख़ाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवा-ए-दैर-ओ-हरम नहीं

शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं

मर्ग-ए-ज़िगर पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानिहा सही मगर इतनी अहम नहीं

Thursday, November 5, 2009

तुम चली जाओगी /Tum chali jaogi

तुम चली जाओगी, परछाईयाँ रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाइयां रह जायेंगी


तुम तो इस झील के साहिल पे मिली हो मुझ से
जब भी देखूंगा यहीं मुझ को नज़र आओगी

याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी


खुल के रह जायेगी झोंकों में बदन की खुश्बू
ज़ुल्फ़ का अक्स घटाओं में रहेगा सदियों

फूल चुपके से चुरा लेंगे लबों की सुर्खी
यह जवान हुस्न फ़िज़ाओं में रहेगा सदियों


इस धड़कती हुई शादाब-ओ-हसीं वादी में
यह न समझो कि ज़रा देर का किस्सा हो तुम

अब हमेशा के लिए मेरे मुकद्दर की तरह
इन नजारों के मुकद्दर का भी हिस्सा हो तुम


तुम चली जाओगी परछाईयाँ रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाईयां रह जायेंगी

मैं पल दो पल का शायर हूँ /Main pal do pal ka

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

मुझ से पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए,
कुछ आहें भर कर लौट गए, कुछ नग़में गा कर चले गए ।
वे भी एक पल का क़िस्सा थे, मैं भी एक पल का क़िस्सा हूँ,
कल तुम से जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

एक पत्र /Ek Patra

मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?

गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?

कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।

ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।

द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।

विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।

औ' बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।

आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?

फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।

टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये /Phir kar lene do pyar priye

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..

Saturday, October 24, 2009

भगवान के डाकिए /Bhagwan ke daakiye

पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं
जो एक महादेश से
दूसरें महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पनी और पहाड़
बाँचते हैं।

हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।

जनतंत्र का जन्म/Jantantra ka janm

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।


जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

Wednesday, October 14, 2009

किरणों का खेल /Kirno ka khel

चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।


पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झूम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से।

बंद नहीं अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से,
कितने शांत और चुपचाप।

है बिखेर देती वसुंधरा
मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सवेरा होने पर।
और विराम-दायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य-श्याम तनु जिससे उसका
नया रूप छलकाता है।

अर्जुन की प्रतिज्ञा/Arjun ki pratigya

   
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।

Tuesday, October 13, 2009

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे /Mere swapn tumhare pass


मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे


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तुलना /Tulna

गडरिये कितने सुखी हैं ।
न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।
जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिये मेडों पर बैठे मुस्कुराते हैं
– भेडों को बाड में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं ,उधर
भेडों को हाँके लिए जाते हैं ।
गडरिये कितने सुखी हैं ।

आज सडकों पर /Aaj sadko par

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।


एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।


अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।


वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।


ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।


राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।

एक आशीर्वाद /Ek Aashirwaad

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

Saturday, October 10, 2009

अब तो पथ यही है /Ab to path yahi hai

जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |

आग जलती रहे/Aag jalti rahe

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

अपाहिज व्यथा/Apahij vyatha

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।


ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।


अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।


वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।


तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।


मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।


समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये/Kahan to tay tha

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये


यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये


न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये


ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये


वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये


जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये



मयस्सर = उपलब्ध ; मुतमईन = संतुष्ट ; मुनासिब = ठीक

विदा के बाद प्रतीक्षा

परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।


सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात मेंa
उनके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ।

मेरी कुण्ठा /Meri Kuntha

मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!


बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज-मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा ।

हो गई है पीर पर्वत /Ho gayi hai peer


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोश‍िश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

Friday, October 9, 2009

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है /Is nadi ki dhar me

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।


एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।


एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।


एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।


निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।


दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

Wednesday, October 7, 2009

Email I Got !!!

Hiii  I got this mail frm a  group and wanted to share it  here !!!

Sender is Mr. Abhinav Shukla and iff  Mr Shukla, u want me to remove this mail frm here then kindly drop me a mail at anselmites20002@yahoo.com .... but i dont think that wud  b necessary !!!


दो दिन पहले सूचना मिली कि मेजर गौतम राजरिशी को गोलियां लगी हैं. आदरणीय पंकज सुबीर जी (गुरुदेव) से बात हुयी तो उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से कुछ लोग अपनी बंदूकों पर हमारी सांस्कृतिक एकता का बिगुल बजाते, तथा अपने बमों पर सूफियाना कलाम गाते हमारे साथ अमन की इच्छा लिए भारत आना चाहते थे. उन्हीं के स्वागत सत्कार में मेजर साहब को गोलियां लगी हैं. वे अब खतरे से बाहर हैं. मेजर साहब एक अच्छा सैनिक होने के साथ साथ एक बहुत बढ़िया कवि भी हैं. इसी नाते उनसे मेल पर और टिप्पणियों के ज़रिये बातचीत भी हुयी है तथा कहीं न कहीं एक सम्बन्ध भी बन गया है. इस घटना नें बड़ा विचलित किया हुआ है. मेजर गौतम एक सच्चे योद्धा हैं तथा मुझे पूरा विश्वास है कि वे शीघ्र पूर्णतः स्वास्थ्य हो जायेंगे. मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों कि शुभकामनाएं उनके साथ हैं. ये समाचार लगबघ प्रतिदिन हाशिये पर आता था की मुठभेड़ हुयी, इतने जवान ज़ख्मी हुए. पर आज जब मेजर गौतम को गोली लगी है तो पहली बार एहसास हुआ है कि जब किसी अपने को चोट लगती है तो कैसा दर्द होता है. और जो दूसरी बात महसूस हुयी है वह ये कि क्या हमारी संवेदनाएं केवल उनके लिए होती हैं जिनसे हम परिचित होते हैं. तथा हमारे देश के जो सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए रात दिन हमारी सुरक्षा में तत्पर रहते हैं उनके प्रति हमारा क्या दायित्व है. एक और बात यह भी कि अपने प्रिय पड़ोसी के साथ कब तक हम प्रेम कि झूठी आस लगाये बैठे रहेंगे.  वो हमारे यहाँ बम विस्फोट करवा रहे हैं, हम उनके हास्य कलाकारों से चुटकुले सुन रहे हैं. वो हमारे यहाँ अपने आतंकियों को भेज रहे हैं, हम उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हैं. वे हमारे यहाँ नकली नोटों की तस्करी करवा रहे हैं और हम उनके संगीत की धुनों पर नाच रहे हैं. वो हमारी भूमि पर अपना दावा ठोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और हम उनको मेरा भाई मेरा भाई कह कर गले लगाते नहीं थक रहे. ये जो विरोधाभास है ये जानलेवा है. क्या हम एक देश हैं, क्या हम एक आवाज़ में अपने शत्रुओं का विरोध कर सकते हैं. इसी सब उधेड़ बुन में कुछ छंद बहते बहते मानस के पटल पर आ गए हैं जिनको आपके साथ बाँट रहा हूँ.


सिंह के हाथों में देश की कमान है मगर,

लगता है फैसले किये हैं भीगी बिल्ली नें,

उनका है प्रण हमें जड़ से मिटाना, हम,

कहते हैं प्यार दिया क्रिकेट की गिल्ली नें,

यहाँ वीर गोलियों पे गोलियां हैं खाय रहे,

मीडिया दिखाती स्वयंवर किया लिल्ली नें,

जब जब विजय का महल बनाया भव्य,

तब तब तोड़ा उसे मरगिल्ली दिल्ली नें,



हृदय में भावना का सागर समेटे हुए,

ग़ज़ल के गाँव का बड़ा किसान हो गया,

हाथ में उठा के बन्दूक भी लड़ा जो वीर,

शत्रुओं के लिए काल घमासान हो गया,

प्रार्थना है शीघ्र स्वस्थ्य होके आनंद करे,

मेजर हमारा गौतम महान हो गया,

भारत के भाल निज रक्त से तिलक कर,

राजरिशी राष्ट्र के ऋषि सामान हो गया.

हाथ में तिरंगा लिए बढ़ते रहे जो सदा,

कदमों के अमिट निशान को प्रणाम है,

राष्ट्रहित में जो निज शोणित बहाय रहा,

मात भारती के वरदान को प्रणाम है,

दैत्यों को देश कि सीमाओं पर रोक दिया,

वीरता की पुण्य पहचान को प्रणाम है,

करुँ न करुँ मैं भगवान् को नमन किन्तु,

गोलियों से जूझते जवान को प्रणाम है.



जय हिंद! 

Saturday, October 3, 2009

समर शेष है / रामधारी सिंह "दिनकर"

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है


पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?


अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में


समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा


समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं


कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे


समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे


समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर


समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है


समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल


तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे


समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

समुद्र का पानी / रामधारी सिंह "दिनकर"

बहुत दूर पर
अट्टहास कर
सागर हँसता है।
दशन फेन के,
अधर व्योम के।

ऐसे में सुन्दरी ! बेचने तू क्या निकली है,
अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर
सुकुमार वक्ष के फूलों पर ?

सरकार !
और कुछ नहीं,
बेचती हूँ समुद्र का पानी।
तेरे तन की श्यामता नील दर्पण-सी है,
श्यामे ! तूने शोणित में है क्या मिला लिया ?

सरकार !
और कुछ नहीं,
रक्त में है समुद्र का पानी।

माँ ! ये तो खारे आँसू हैं,
ये तुझको मिले कहाँ से ?n

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों / रामधारी सिंह "दिनकर"

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो।
श्रवण खोलो¸
रूक सुनो¸ विकल यह नाद
कहां से आता है।
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है?

जनता की छाती भिदें
और तुम नींद करो¸
अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।
तुम बुरा कहो या भला¸
मुझे परवाह नहीं¸
पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।

हो कहां अग्निधर्मा
नवीन ऋषियो? जागो¸
कुछ नयी आग¸
नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।
शीतल प्रमाद से ऊंघ रहे हैं जो¸ उनकी
मखमली सेज पर
चिनगारी की वृष्टि करो।

गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूं साथी¸
झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।
है जहां–जहां तमतोम
सिमट कर छिपा हुआ¸
चुनचुन कर उन कुंजों में
आग लगाता हूँ।

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Monday, September 28, 2009

जियो जियो अय हिन्दुस्तान /// Jiyo Jiyo ae hindustan

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !


हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !


हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।


जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!


गाँधी///Gandhi

देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
"जडता को तोडने के लिए
भूकम्प लाओ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ।
पूरे पहाड हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो।
कोई तूफान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"


सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था।


तब भी हम ने गाँधी के
तूफान को ही देखा,
गाँधी को नहीं।


वे तूफान और गर्जन के
पीछे बसते थे।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे।


तूफान मोटी नहीं,
महीन आवाज से उठता है।
वह आवाज
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है।


गाँधी तूफान के पिता
और बाजों के भी बाज थे।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।

रोटी और स्वाधीनता

(1)
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
(2)
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
(3)
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

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Saturday, September 26, 2009

Ramdhari Singh Dinkar:::: Work

Ramdhari Singh was born on September 23, 1908 in a small village of Simariya in Bihar. He came off a poor Bramhin family.He studied, Sanskrit, Maithili, Bengali, Urdu and English literature. Dinkar was immensely influenced by some great poets like-Iqbal, Rabindranath Tagore, Keats and Milton.

Initially Ramdhari Singh was associated with the revolutionary movement in the Indian Freedom Movement.During this time he started writing his nationalist poetry as a revolutionary poet.But in his later part of life he followed Gandhaian ideology though he thought sometimes revenge is necessary for self protection.

Ramdhari Singh potrayed this view in Kurukshetra.He wrote many poems and prose. The poem ,Pranbhang in 1929 was the first publication of him. His collections of poems are Lokpriya(1964), Kavi Dinkar (1960), Dinkar ki Suktiyan (1964) ,Dinkar ke Geet (1973) Sanchayita (1973) .His other major poems are Renuka (1935) ,Hunkar (1938) ,Rasavanti (1939), Dvandvageet (1940) ,Saamdheni (1947) ,Baapu (1947) ,Dhup-Chhanh (1947) ,Rashmirathi (1952) ,Dilli (1954) ,Neem ke Patte (1954) ,Suraj ka Byaah (1955) ,Neel Kusum (1955) ,Chakravaal (1956) ,Kavishri (1957) ,Urvashi (1961),Parashuram ki Pratiksha (1963) ,Haare ko Harinaam (1970) .The major prose works of Dinakar`s are Mitti ki Or (1946) ,Chittaur ka Saakaa (1948) ,Ardhanaarishwar (1952) ,Sanskriti ke Chaar Adhyaay (1956) ,Kaavya ki Bhumikaa (1958) ,Pant, Prasad aur Maithilisharan (1958), Shuddh Kavitaa ki Khoj (1966) ,Saahityamukhi (1968), Dinkar ki Daayri (1973) ,Chetana ki Shilaa (1973) ,Vivah ki Musibaten (1973) and Aadhunik Bodh (1973).

Ramdhari Singh was conffered with Jnanpith Award in 1972 for Urvashi. He was also awarded Padma Bhushan in 1959 and Sahitya Akademi Award also in 1959.He was given the title "Rashtrakavi" for his literary works.He passed away on April 24, 1974.

Friday, September 11, 2009

किसको नमन करूँ मैं भारत?

किसको नमन करूँ मैं भारत?

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !





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आग की भीख

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।

कलम, आज उनकी जय बोल

जो अगणित लघु दीप हमारे
तुफानों में एक किनारे
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल

पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही लपट दिशाएं
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल


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विजयी के सदृश जियो रे !

विजयी के सदृश जियो रे

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

परिचय

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं

समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं

कली की पंखडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं

न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं

बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।

रात यों कहने लगा मुझसे

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

समर शेष है


वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

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बालिका से वधु

माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी,
पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी।
लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी,
यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

पीला चीर, कोर में जिसकी चकमक गोटा-जाली,
चली पिया के गांव उमर के सोलह फूलोंवाली।
पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल चितवन में,
आँसू में भींगी माया चुपचाप खड़ी आंगन में।

आँखों में दे आँख हेरती हैं उसको जब सखियाँ,
मुस्की आ जाती मुख पर, हँस देती रोती अँखियाँ।
पर, समेट लेती शरमाकर बिखरी-सी मुस्कान,
मिट्टी उकसाने लगती है अपराधिनी-समान।

भींग रहा मीठी उमंग से दिल का कोना-कोना,
भीतर-भीतर हँसी देख लो, बाहर-बाहर रोना।
तू वह, जो झुरमुट पर आयी हँसती कनक-कली-सी,
तू वह, जो फूटी शराब की निर्झरिणी पतली-सी।

तू वह, रचकर जिसे प्रकृति ने अपना किया सिंगार,
तू वह जो धूसर में आयी सुबज रंग की धार।
मां की ढीठ दुलार! पिता की ओ लजवंती भोली,
ले जायेगी हिय की मणि को अभी पिया की डोली।

कहो, कौन होगी इस घर तब शीतल उजियारी?
किसे देख हँस-हँस कर फूलेगी सरसों की क्यारी?
वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे पहला फल अर्पण-सा?
झुकते किसको देख पोखरा चमकेगा दर्पण-सा?

किसके बाल ओज भर देंगे खुलकर मंद पवन में?
पड़ जायेगी जान देखकर किसको चंद्र-किरन में?
महँ-महँ कर मंजरी गले से मिल किसको चूमेगी?
कौन खेत में खड़ी फ़सल की देवी-सी झूमेगी?

बनी फिरेगी कौन बोलती प्रतिमा हरियाली की?
कौन रूह होगी इस धरती फल-फूलों वाली की?
हँसकर हृदय पहन लेता जब कठिन प्रेम-ज़ंजीर,
खुलकर तब बजते न सुहागिन, पाँवों के मंजीर।

घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन उँगली की पोरों पर,
प्रिय की याद झूलती है साँसों के हिंडोरों पर।
पलती है दिल का रस पीकर सबसे प्यारी पीर,
बनती है बिगड़ती रहती पुतली में तस्वीर।

पड़ जाता चस्का जब मोहक प्रेम-सुधा पीने का,
सारा स्वाद बदल जाता है दुनिया में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहागिन, यह मेरा वरदान;
हरसिंगार की टहनी-से फूलें तेरे अरमान।

जगे हृदय को शीतल करनेवाली मीठी पीर,
निज को डुबो सके निज में, मन हो इतना गंभीर।
छाया करती रहे सदा तुझको सुहाग की छाँह,
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे हो प्रियतम की बाँह।

पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी के दिन-दिन त्यौहार,
उर का प्रेम फूटकर हो आँचल में उजली धार।

लोहे के मर्द

पुरुष वीर बलवान,
देश की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं।

कहते हैं, ये पुष्प, दीप,
अक्षत क्यों लाये हो?

हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,
फूलों के हारों की, जय-जयकार की।

तड़प रही घायल स्वदेश की शान है।
सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।

ले जाओ आरती, पुष्प, पल्लव हरे,
ले जाओ ये थाल मोदकों ले भरे।

तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो,
दे सकते हो तो गोली-बन्दूक दो।



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चाँद और कवि

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज बनता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।



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