Monday, November 30, 2009

एक भी आँसू न कर बेकार
एक भी आँसू न कर बेकार
-जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ -
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं,
हर छलकते अश्रु को कर प्यार -
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पाँव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा -
स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में,
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
-जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!
- रामावतार त्यागी

Pushp Ki Abhilasha

पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक
- माखनलाल चतुर्वेदी

Thursday, November 26, 2009

प्रतिशोध /Pratishodh

किसी जन ने किसी से क्लेश पाया
नबी के पास वह अभियोग लाया।
मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।
नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।
उन्होंने शांत कर उसको कहा यों
स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।
चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने
स्वयं भी घात पाकर घात देने
क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा
तुम्हारे शील का साक्षी रहूंगा
दिखावो बंधु क्रम-विक्रम नया तुम
यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।

मातृभूमि /Matrabhumi

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥

फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥

जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥

हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

मनुष्यता /Manushyata

विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

Wednesday, November 25, 2009

नर हो, न निराश करो मन को /Nar ho na niraash

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो

Saturday, November 21, 2009

इनसे मिलिए /Inse Miliye

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून
कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पांव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़
गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन चुन कर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते करते जीवन का सूद
बाँहें ढीली ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल
छोटी सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक़्त पसीने का बदबू का संग
पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान
माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल
बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत


कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।

Wednesday, November 11, 2009

मैं ज़िन्दगी का साथ/Main Zindagi ka saath

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया

बरबादियों का सोग मनाना फ़ुजूल था
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया

जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मुक़ाम पर लाता चला गया

तुम्हें उदास सा पाता हूँ/Tumhe udas sa paata hun

तुम्हें उदास-सा पाता हूँ मैं कई दिन से
न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम
वो शोख़ियाँ, वो तबस्सुम, वो क़हक़हे न रहे
हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम
छुपा-छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी
ख़ुद अपने राज़ की तशहीर बन गयी हो तुम

मेरी उम्मीद अगर मिट गयी तो मिटने दो
उम्मीद क्या है बस एक पेशो-ओ-पश है कुछ भी नहीं
मेरी हयात की ग़मग़ीनियों का ग़म न करो
ग़म हयात-ए-ग़म यक नक़्स है कुछ भी नहीं
तुम अपने हुस्न की रानाईयों पर रहम करो
वफ़ा फ़रेब तुल हवस है कुछ भी नहीं

मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूँ शिकायत हो
मेरी फ़ना मेरे एहसास का तक़ाज़ा है
मैं न जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुमको
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है
शिकस्त साज़ की आवाज़ में रू नग़्मा है

मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
ये तुमने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूँ
मगर मुझे बता दो कि क्यूँ उदास हो तुम
खफ़ा न हो मेरी जुर्रत-ए-तख़्तब पर
तुम्हें ख़बर है मेरी ज़िंदगी की आस हो तुम

मेरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा
मगर ख़ुदा के लिये तुम असीर-ए-ग़म न रहो
हुआ ही क्या जो ज़माने ने तुम को छीन लिया
यहाँ पर कौन हुआ है किसी का सोचो तो
मुझे क़सम है मेरी दुख भरी जवानी की
मैं ख़ुश हूँ मेरी मोहब्बत के फूल ठुकरा दो

मैं अपनी रूह की हर एक ख़ुशी मिटा लूँगा
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता
मैं ख़ूद को मौत के हाथों में सौँप सकता हूँ
मगर ये बर-ए-मुसाइब उठा नहीं सकता
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
निजात जिनसे मैं एक लहज़ पा नहीं सकता

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के तले
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा

ये शरहों पे रंगीन साड़िओं की झलक
ये झोँपड़ियों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशें
ये माल रोड पे कारों की रैल पैल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छायी हुई

ये जंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानून और ज़ब्ते की गिरफ़्त
ये ज़ीस्क़ ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म हैं बहोत मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो

ख़ूबसूरत मोड़ /Khoobsurat Mod

This ones for the gal i love !!! Always had wished why i couldnt write such a thing !!!

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायेँ हम दोनों

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिल नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों में
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से

त'अर्रुफ़ रोग हो जाये तो उस को भूलना बेहतर
त'अल्लुक़ बोझ बन जाये तो उस को तोड़ना अच्छा
वो अफ़्साना जिसे तकमील तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायेँ हम दोनों

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयाँ हैं मेरे माज़ी की
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साये हैं

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायेँ हम दोनों

कभी कभी /kabhi Kabhi

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है


कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी


अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता


पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
तेरे लबों से हलावट के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता


मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं


ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह्गुज़ारों से
महीब साये मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से


न कोई जादह-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर फिर भी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें/Itni haseen itni jawaan

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात, क्या करें
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात, क्या करें ?

पेड़ों के बाजुओं में महकती है चांदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़्यालात, क्या करें ?

साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक
दामन को छू रहा है कोई हाथ, क्या करें ?

शायद तुम्हारे आने से यह भेद खुल सके
हैराँ हैं कि आज नई बात क्या करें ?

पर्वतारोही /Parvatarohi

मैं पर्वतारोही हूँ।
शिखर अभी दूर है।
और मेरी साँस फूलनें लगी है।


मुड़ कर देखता हूँ
कि मैनें जो निशान बनाये थे,
वे हैं या नहीं।
मैंने जो बीज गिराये थे,
उनका क्या हुआ?


किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर
घर जा कर सुख से सोता है,


इस आशा में
कि वे उगेंगे
और पौधे लहरायेंगे ।
उनमें जब दानें भरेंगे,
पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे।


लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।

हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।

करघा /Kargha

हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।


ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।


हर ज़िन्दगी एक सूत है
और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।
इस उलझन का सुलझाना
हमारे लिये मुहाल है ।


मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,
वह हर सूत की किस्मत को
पहचानता है।
सूत के टेढ़े या सीधे चलने का
क्या रहस्य है,
बुनकर इसे खूब जानता है।

’हारे को हरिनाम’ से

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं /Humko mita sake ye

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं

बेफ़ायदा अलम नहीं, बेकार ग़म नहीं
तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये ने'आमत भी कम नहीं

मेरी ज़ुबाँ पे शिकवा-ए-अह्ल-ए-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं

या रब! हुजूम-ए-दर्द को दे और वुस'अतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं

ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयख़ाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवा-ए-दैर-ओ-हरम नहीं

शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं

मर्ग-ए-ज़िगर पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानिहा सही मगर इतनी अहम नहीं

Thursday, November 5, 2009

तुम चली जाओगी /Tum chali jaogi

तुम चली जाओगी, परछाईयाँ रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाइयां रह जायेंगी


तुम तो इस झील के साहिल पे मिली हो मुझ से
जब भी देखूंगा यहीं मुझ को नज़र आओगी

याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी


खुल के रह जायेगी झोंकों में बदन की खुश्बू
ज़ुल्फ़ का अक्स घटाओं में रहेगा सदियों

फूल चुपके से चुरा लेंगे लबों की सुर्खी
यह जवान हुस्न फ़िज़ाओं में रहेगा सदियों


इस धड़कती हुई शादाब-ओ-हसीं वादी में
यह न समझो कि ज़रा देर का किस्सा हो तुम

अब हमेशा के लिए मेरे मुकद्दर की तरह
इन नजारों के मुकद्दर का भी हिस्सा हो तुम


तुम चली जाओगी परछाईयाँ रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाईयां रह जायेंगी

मैं पल दो पल का शायर हूँ /Main pal do pal ka

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

मुझ से पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए,
कुछ आहें भर कर लौट गए, कुछ नग़में गा कर चले गए ।
वे भी एक पल का क़िस्सा थे, मैं भी एक पल का क़िस्सा हूँ,
कल तुम से जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

एक पत्र /Ek Patra

मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?

गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?

कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।

ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।

द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।

विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।

औ' बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।

आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?

फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।

टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये /Phir kar lene do pyar priye

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..