चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।
- पुलक प्रगट करती है धरती
- हरित तृणों की नोकों से,
- मानो झूम रहे हैं तरु भी
- मंद पवन के झोंकों से।
- बंद नहीं अब भी चलते हैं
- नियति-नटी के कार्य-कलाप,
- पर कितने एकान्त भाव से,
- कितने शांत और चुपचाप।
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सवेरा होने पर।
- और विराम-दायिनी अपनी
- संध्या को दे जाता है,
- शून्य-श्याम तनु जिससे उसका
- नया रूप छलकाता है।
Please explain this poem
ReplyDelete